चन्द लम्हों के लिए था क्या उस कश्ती में साथ हमारा
जो किनारों को मिलते ही राहों को बदल दिए मुसाफिर
छू लिया था तुमने अपनी निगाहों से हमारी रूह तक को भी
फिर मंजिल पा कर अजनबी क्यों बन गये मुसाफिर
थामा था हाथ तुमने मेरे साथ चलने के वास्ते,
फिर तनहा छोड़ कर हमे क्यों चल दिए मुसाफिर
किसी की यादों में तड़प कर हमे रोने की आदत ना थी
फिर मेरी आँखों में अश्क क्यों दे गये मुसाफिर
आज भी पलके बिछाए बैठी हू उसी राह पर तेरे इंतज़ार में
जिस राह से तुम गुजरे थे मुसाफिर
डर नहीं है मुझे तुफानो के आने का
क्यूकि मेरा साहिल तो तुम हो मुसाफिर
बस बहुत आजमा लिया तुमने हमे,
अब इन फासलों को ख़तम करने लौट कर आजाओ मुसाफिर
जो किनारों को मिलते ही राहों को बदल दिए मुसाफिर
छू लिया था तुमने अपनी निगाहों से हमारी रूह तक को भी
फिर मंजिल पा कर अजनबी क्यों बन गये मुसाफिर
थामा था हाथ तुमने मेरे साथ चलने के वास्ते,
फिर तनहा छोड़ कर हमे क्यों चल दिए मुसाफिर
किसी की यादों में तड़प कर हमे रोने की आदत ना थी
फिर मेरी आँखों में अश्क क्यों दे गये मुसाफिर
आज भी पलके बिछाए बैठी हू उसी राह पर तेरे इंतज़ार में
जिस राह से तुम गुजरे थे मुसाफिर
डर नहीं है मुझे तुफानो के आने का
क्यूकि मेरा साहिल तो तुम हो मुसाफिर
बस बहुत आजमा लिया तुमने हमे,
अब इन फासलों को ख़तम करने लौट कर आजाओ मुसाफिर
बहुत अच्छा लिखा है
ReplyDeleteमुसाफिर के बारे में जिस तरह से बताया है काबिले तारीफ है
नमस्कार , आज मैं अपने ब्लॉग की पुरानी पोस्ट्स देख रहा था , आपके कमेंट भी पढ़े . अच्छा लगा . मैं फिर से ब्लॉग्गिंग शुरू कर रहा हूँ . आपका स्वागत है
ReplyDeleteविजय
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